हॉकी के जादूगर मेजर ध्यान चंद को दिल से श्रद्धांजलि

3 दिसम्बर 1979 को हॉकी के जादूगर मेजर ध्यान चंद जी ने अपनी अंतिम साँस ली थी l

उन्हें लीवर में कैंसर हो गया था, ध्यानचंद जी के आखिरी दिन अच्छे नहीं रहे. ओलिंपिक मैच में भारत को स्वर्ण पदक दिलाने के बावजूद भारत देश उन्हें भूल गया l

उन्हें दिल्ली के AIIMS हॉस्पिटल के जनरल वार्ड में भर्ती कराया गया था l उनका देहांत 3 दिसम्बर 1979 को  हुआ था l

ध्यानचंद जी को फुटबॉल में पेले और क्रिकेट में ब्रैडमैन के समतुल्य माना जाता है। गेंद इस कदर उनकी स्टिक से चिपकी रहती कि प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी को अक्सर आशंका होती कि वह जादुई स्टिक से खेल रहे हैं। यहाँ तक हॉलैंड में उनकी हॉकी स्टिक में चुंबक होने की आशंका में उनकी स्टिक तोड़ कर देखी गई।

जापान में ध्यानचंद की हॉकी स्टिक से जिस तरह गेंद चिपकी रहती थी उसे देख कर उनकी हॉकी स्टिक में गोंद लगे होने की बात कही गई। ध्यानचंद की हॉकी की कलाकारी के जितने किस्से हैं उतने शायद ही दुनिया के किसी अन्य खिलाड़ी के बाबत सुने गए हों। 

हॉकी की कलाकारी देखकर हॉकी के मुरीद तो वाह-वाह कह ही उठते थे बल्कि प्रतिद्वंद्वी टीम के खिलाड़ी भी अपनी सुधबुध खोकर उनकी कलाकारी को देखने में मशगूल हो जाते थे।

उनकी कलाकारी से मोहित होकर ही जर्मनी के रुडोल्फ हिटलर सरीखे जिद्दी सम्राट ने उन्हें जर्मनी के लिए खेलने की पेशकश कर दी थी। लेकिन ध्यानचंद ने हमेशा भारत के लिए खेलना ही सबसे बड़ा गौरव समझा।

वियना में ध्यानचंद की चार हाथ में चार हॉकी स्टिक लिए एक मूर्ति लगाई और दिखाया कि ध्यानचंद कितने जबर्दस्त खिलाड़ी थे।

ध्यानचंद जी का जन्म उत्तरप्रदेश के इलाहबाद में 29 अगस्त 1905 को हुआ था. वे कुशवाहा, मौर्य परिवार के थे. उनके पिता का नाम समेश्वर सिंह था, जो ब्रिटिश इंडियन आर्मी में एक सूबेदार के रूप कार्यरत थे, साथ ही होकी गेम खेला करते थे l

ध्यानचंद के दो भाई थे, मूल सिंह एवं रूप सिंह. रूप सिंह भी ध्यानचंद की तरह होकी खेला करते थे, जो अच्छे खिलाड़ी थे l

1922 में 16 साल की उम्र में ध्यानचंद पंजाब रेजिमेंट से एक सिपाही बन गए. आर्मी में आने के बाद ध्यानचंद ने होकी खेलना अच्छे से शुरू किया, और उन्हें ये पसंद आने लगा. सूबेदार मेजर भोले तिवार जो ब्राह्मण रेजिमेंट से थे, वे आर्मी में ध्यानचंद के मेंटर बने, और उन्हें खेल के बारे में बेसिक ज्ञान दिया l

पंकज गुप्ता ध्यानचंद के पहले कोच कहे जाते थे, उन्होंने ध्यानचंद के खेल को देखकर कह दिया था कि ये एक दिन पूरी दुनिया में चाँद की तरह चमकेगा. उन्हें उनके दोस्त चंद कहकर पुरारते थे। ये नाम इसलिए पड़ा क्योंकि वो अक्सर अपने ड्यूटी के बाद कई घंटे चाँदनी रात में अभ्यास करते थे।उन्ही ने ध्यानचंद को चन्द नाम दिया, जिसके बाद  इसके बाद ध्यान सिंह, ध्यान चन्द बन गया l

भारतीय हॉकी के सबसे दिग्गज खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद को सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों में से एक माना जाता है जिन्होंने भारत के लिए हॉकी खेला है।

 

दूसरे विश्व युद्ध से पहले के वर्षों में हॉकी के खेल पर अपना वर्चस्व कायम करने वाली भारतीय हॉकी टीम के स्टार खिलाड़ी ध्यानचंद एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी थे। जिन्होंने 1928, 1932 और 1936 में भारत को ओलंपिक खेलों में लगातार तीन स्वर्ण पदक जिताने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

 

ध्यानचंद को इस खेल में महारत हासिल थी और वो गेंद को अपने नियंत्रण में रखने में इतने निपुण थे कि वो 'हॉकी जादूगर' और 'द मैजिशियन' जैसे नामों से प्रसिद्ध हो गए।

 

ध्यानचंद ने तत्कालीन ब्रिटिश भारतीय सेना के साथ अपने कार्यकाल के दौरान हॉकी खेलना शुरू किया और 1922 और 1926 के बीच, उन्होंने कई सेना हॉकी टूर्नामेंट और रेजिमेंटल खेलों में भाग लिया।

 

उन्होंने सेना में रहते हुए खेल को समझने वाले लोगों को प्रभावित किया था और जब नवगठित भारतीय हॉकी महासंघ (आईएचएफ) ने एम्स्टर्डम में 1928 ओलंपिक के लिए एक टीम भेजने का फैसला किया, तो ध्यानचंद को ट्रायल के लिए बुलाया गया।

 

उन्होंने ओलंपिक टीम में जगह बनाई। ध्यानचंद ने टूर्नामेंट के पांच मैचों में 14 गोल कर करते हुए शीर्ष स्कोरर रहे, जिनमें से नौ गोल सर्वश्रेष्ठ साबित हुए थे, जिसमें भारतीय हॉकी टीम स्वर्ण पदक जीतने के साथ साथ पूरे टूर्नामेंट में अजय रही थी।

 

जब 1932 के ओलंपिक के लिए भारतीय टीम का चयन किया गया था, तब ध्यानचंद के लिए कोई ट्रायल की जरूरत नहीं थी और इस बार टीम में उनके भाई रूप सिंह भी शामिल थे।

 

लॉस एंजेलिस खेलों में भारतीय टीम की कमान उन्हें सौंपी गई। अपने कप्तान के खेल से प्रेरित होकर भारतीय टीम ने फिर से अपना वर्चस्व कायम रखा और फाइनल में मेजबान जर्मनी को 8-1 से हराकर, स्वर्ण पदक पर कब्जा किया। इस बार भी टीम अजय रही।

 

टीम की कमान संभालते हुए ध्यानचंद ने फाइनल मुक़ाबले में तीन गोल किए, भले ही विपक्षी टीम ने उन्हें रोकने के लिए किसी न किसी रणनीति का सहारा लिया हो लेकिन ध्यानचंद को रोकना नामुमकिन साबित हुआ। मैदान पर अपनी गति बढ़ाने के लिए उन्होंने मैच के दूसरे हाफ में नंगे पैर खेला।

 

उन्होंने पांच मैचों में कुल 11 गोल के साथ बर्लिन खेलों का समापन किया। कुल मिलाकर उन्होंने तीन ओलंपिक के 12 मैचों में 37 गोल किए और तीन ओलंपिक स्वर्ण पदक जीते।

 

द्वितीय विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद, ध्यानचंद की उम्र चालीस हो चुकी थी। एक स्वतंत्र भारतीय हॉकी टीम ने 1948 ओलंपिक खेलों में भाग लिया था। इस समय ध्यानचंद टीम का हिस्सा नहीं थे।

ध्यानचंद 34 साल की सर्विस के बाद अगस्त 1956 में भारतीय सेना से लेफ्टिनेंट के रूप में रिटायर्ड हुए l

ध्यानचंद अवार्ड्स  

1956 में उन्हें पद्म भूषण से ध्यानचंद को सम्मानित किया गया था.

उनके जन्मदिवस को नेशनल स्पोर्ट्स डे की तरह मनाया जाता है.

ध्यानचंद  जी की याद में डाक टिकट शुरू की गई थी l

दिल्ली में ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम का निर्माण कराया गया था l

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